Last modified on 12 मई 2017, at 16:26

परछाइयों की बाड़ / दिनेश जुगरान

तुम्हारे बग़ीचे की दीवार बहुत ऊँची है उस पर
चढ़कर मैं उन सुनहरे फूलों को देख नहीं सकता
जिसके चारों ओर हुकूमत के काँटे उगाये हैं तुमने

पहरेदार उस दीवार पर चढ़कर आकाश को
काला करने में व्यस्त हैं

पत्तियों की सरसराहट में भी तुम तलाशते
हो तालियों की गूँज आह्वानों के औजारों से
आहत करना तुम्हारे रोज़मर्रा की
मुद्राओं का हिस्सा बन गया है

तुम्हारे शरीर से बड़ी परछाइयों की बाड़ है
दीवारों के चारों ओर तुम्हारे बग़ीचे
के पेड़ों की आड़ी-तिरछी छाँव डरावनी
लगती है तुम्हारी इमारत के कोने चुभते
हैं मेरे चेहरे पर और ठहाके रोकते
हैं मेरे दम तोड़ते हौसले को

आश्वासन और स्मृति के बीच एक
अजाना भय ही करता है मुझे ऊर्जस्वित