निज भासा री लख दसा
उठी काळजै हूक,
कविता मांडी रगत स्यूं
कही साच दो टूक,
कोनी ससती रागळी
आ है परतख पीड़,
मायड़ भासा पर पड़ी
आ’र अणूंती भीड़।
फेर दुसासन हर रयो
पांचाली रो चीर,
आख मींचली भिसमजी
द्रोण सरीसा वीर,
कुण मेटै इन्याय नै
भोम निछतरी आज,
मीरा रा गिरधर कठै
राखै सत री लाज ?