परमानंददास अष्टछाप के अत्यंत प्रतिभा संपन्न कवि थे। ये कन्नौज के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनके पिता बडे निर्धन थे। जनश्रुति है कि इनके जन्म के दिन किसी धनी सेठ ने इनके पिता को प्रचुर दान दिया जिससे उन्हें परम आनंद हुआ। इसी से उन्होंने अपने पुत्र का नाम परमानंद रख दिया। ये बालपन से ही भगवत् भक्त थे। श्री वल्लभाचार्य से स्वप्न में आदेश पाकर उनसे मिलने अरैल गए और उनके शिष्य बन गए। उन्होंने श्रीनाथजी की सेवा इन्हें सौंपी जिसे ये आजीवन करते रहे। ये कलाप्रेमी एवं स्वयं कुशल कलाकार थे। इनका पद-सौंदर्य तथा रचना-प्राचुर्र्य दोनों ही सराहनीय हैं। इनकी समस्त रचना 'परमानंद सागर में संग्रहित है। कहते हैं एक बार जन्माष्टमी पर आनंदमग्न होकर इन्होंने इतना नृत्य किया कि मर्ूच्छित हो गए तथा वहीं शरीर छोड दिया।