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परम्परा / महेन्द्र भटनागर

परम्परा, परम्परा, परम्परा !

जकड़ लिया

मिटा दिया

निशान धूल झोंक कर

युगों चला लिया,

गुलाम हो गये

बना स्वयं अनेक रीतियाँ

प्रथा बनाम रूढ़ियाँ !

नवीन स्वर नहीं सुना ?

नया स्वरूप भी नहीं दिखा ?

बदल गया जहान

सत्य आ गया खरा !

कहाँ गयी

परम्परा, परम्परा, परम्परा ?

अंध मान्यता,

कठोर मान्यता,

असार मान्यता !

अरे बता -

कि धर्म ... धर्म ... धर्म ... की पुकार

मच रही,

यहाँ वहाँ सभी जगह

कि मार-धाड़,

हो गया मनुज गँवार,

कौन-सा अमूल्य धर्म वह सुना रहा ?

क़ुरान ?

वेद ? उपनिषद ? पुराण ?

बाइबिल ?

सभी बदल चुके !

नवीन ग्रन्थ और एक 'ईश' चाहिए,

कि जो युगीन जोड़ दे

नया, नया, नया !

व लहलहा उठे

मनुज-महान-धर्म की

सड़ी-गली लता !

सुधार मान्यता,

नवीन मान्यता,

सशक्त मान्यता !

न व्यर्थ मोह में पड़ो

न कुछ यहाँ धरा !

बदल परम्परा, परम्परा, परम्परा !

1948