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परम्परा / लीलाधर जगूड़ी

समुद्र तट से थोड़ा पहले
अपनी कुलीन यात्रा के अनुभव में
जहाँ
पानी नदी के नाम से जाना जाता है
मैंने तुम्हें याद किया

थोड़ा आगे
जहाँ पहुँचकर
वह अपना नाम त्यागती है
उद्गम भूल जाती है
मैंने तुम्हें याद किया

उससे भी आगे
सागर की अस्थिर छाती पर
जहाँ
नदी को कोई निर्णय नहीं लेना
मैंने तुम्हें याद किया

उससे भी आगे
पानी ही जहाँ
क्षितिज की रेखा बन जाता है
सतह पर तो सूर्योदय होता है
मगर हृदय में अन्धकार
सर्दी की रातों जैसा
चिपककर सोता है
मैंने तुम्हें याद किया।