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परवाज़-ए-शमअ / रेशमा हिंगोरानी

वो एक शाम गुज़ारी थी जो,
तूने मैंने…
लम्हा-लम्हा बरस रहा था,
वक़्त का बादल!
फासले छीन न पाए थे,
सुरूर-ए-क़ुर्बत,
था ऐसा जाल सा हरसू,
तेरे लफ़्ज़ों ने बुना!

शमअ खुद ही चली आई थी,
सू-ए-पर्वाना!