बैजनी साँझ ने पाँव छुए चंदा के,
छूती सूरज के चरण उषा नारंगी;
यह एक परिधि पूरी होती अनुभव की,
मेरा सारा आकाश चकित-विस्मित है!
...गोधूलि याद आती, वह जादूगरनी,
छूकर, सूरज को चाँद बनाने वाली;
...वह सॉझ,- भुलाती नहीं पुजारिन कोई-
चितवन से मन्दिर – दीप जलाने वाली,
...वह रात,-चाँदनी पहन भटकती मालिन,
वीरान दयारों को दुलराने वाली!
इन ओस-कणों में बीज स्वप्न के बोकर,
कुहरे में अपना जादुई तन खोकर-
फिर सूरज धन्य हुआ जिसके स्वागत में,
मेरे सागर में वही उषा बिंबित है!
...इस एक परिधि में दो बूँदों का सागर,
तिर रहीं बिकी, विच्छिन्न फूल-मालाएँ;
...तट पर बजती जंजीर–बंधी शहनाई,
सुलगाती मंद हवा जल में ज्वालाएँ;
...बन–बन कर मिट जातीं गीताभ गगन में
लालसा-भरी, बादली रंगशालाएं!
जादू की लाली, अंतर की उजियाली,
आभा,-सोया विश्वास जगाने वाली-
घुल रहीं सभी गौरव की अरुणाली में,
मेरे तन-मन में वही विभा पुलकित है!
(कविता –’६४, सम्पादक: ओम प्रभाकर एवं भागीरथ भार्गव, पृ.55)