कबीर जेते पाप किये राखे तलै दुराइ।
परगट भये निदान सब पूछै धर्मराइ॥61॥
जैसी उपजी पेड़ ते जो तैसी निबहै ओड़ि।
हीरा किसका बापुरा पुजहिं न रतन करोड़ि॥62॥
जो मैं चितवौ ना करै क्या मेरे चितवे होइ।
अपना चितव्या हरि करैं जो मारै चित न होइ॥63॥
जोर किया सो जुलुम है लेइ जवाब खुदाइ।
दफतर लेखां नीकसै मार मुहै मुह खाइ॥64॥
जो हम जंत्रा बजावते टूटि गई सब तार।
जंत्रा बिचारा क्या करे चले बजावनहार॥65॥
जो गृह कर हित धर्म करु नाहिं त करु बैराग।
बैरागी बंधन करै ताकौ बड़ौ अभागु॥66॥
जौ तुहि साध पिरम्म की सीस काटि करि गोइ।
खेलत खेलत हाल करि जौ किछु होइ त होइ॥67॥
जौ तुहि साध पीरम्म की पाके सेती खेलु।
काची सरसो पेलि कै ना खलि भई न तैलु॥68॥
कबीर झंखु न झंखियै तुम्हरो कह्यो न होइ।
कर्म करीम जु करि रहे मेटि न साकै कोइ॥69॥
टालै टेलै दिन गया ब्याज बढंतो जाइ।
नां हरि भज्या ना खत फट्यो काल पहूँचो आइ॥70॥
ठाकुर पूजहिं मोल ले मन हठ तीरथ जाहि।
देखा देखी स्वांग धरि भूले भटका खाहि॥71॥
कबीर डगमग क्या करहि कहा डुलावहि जीउ।
सब सुख की नाइ को राम नाम रस पीउ॥72॥
डूबहिगो रे बापुरे बहु लोगन की कानि।
परोसी के जो हुआ तू अपने भी जानि॥73॥
डूबा था पै उब्बरो गुन की लहरि झबक्कि।
जब देख्यो बड़ा जरजरा तब उतरि परौं ही फरक्कि॥74॥
तरवर रूपी रामु है फल रूपी बैरागु।
छाया रूपी साधु है जिन तजिया बादु बिबादु॥75॥
कबीर तासै प्रीति करि जाको ठाकुर राम।
पंडित राजे भूपती आवहि कौने काम॥76॥
तूं तूं करता तूं हुआ मुझ मं रही न हूं।
जब आपा पर का मिटि गया जित देखौ तित तूं॥77॥
थूनी पाई थिति भई सति गुरु बंधी धीर।
कबीर हीरा बनजिया मानसरोवर तीर॥78॥
कबीर थोड़े जल माछली झीरवर मेल्यौ जाल।
इहटौ घनै न छूटिसहि फिरि करि समुद सम्हालि॥79॥
कबीर देखि कै किह कहौ कहे न को पतिआइ।
हरि जैसा तैसा उही रहौ हरखि गुन गाइ॥80॥