कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि रामु।
आदि जगादि सगस भगत ताकौ सब बिश्राम॥121॥
जम का ठेगा बुरा है ओह नहिं सहिया जाइ।
एक जु साधु मोहि मिलो तिन लीया अंचल लाइ॥122॥
कबीर यह चेतानी मत सह सारहि जाइ।
पाछै भोग जु भोगवै तिनकी गुड़ लै खाइ॥123॥
रस को गाढ़ो चूसिये गुन को मरिये रोइ।
अवमुन धारै मानसै भलो न कहिये कोइ॥124॥
कबीर राम न चेतिये जरा पहूँच्यौ आइ।
लागी मंदर द्वारि ते अब थ्या कादîो जाइ॥125॥
कबीर राम न चेतियो फिरिया लालच माहि।
पाप करंता मरि गया औध पुजी खिन माहि॥126॥
कबीर राम न छोड़िये तन धन जाइ त जाउ।
चरन कमल चित बोधिया रामहि नाम समाउ॥127॥
कबीर राम न ध्याइयो मोटी लागी खोरि।
काया हाड़ी काठ की ना ओह चढ़े बहोरि॥128॥
राम कहना महि भेंदु है तामहिं एकु बिचारु।
सोइ राम सबै कहहिं सोई कौतुकहारु॥129॥
कबीर राम मैं राम कहु कहिबे माहि बिबेक।
एक अनेकै मिलि गयां एक समाना एक॥130॥
रामरतन मुख कोथरी पारख आगै भोलि।
कोइ आइ मिलैगो गाहकी लेगी महँगे मोलि॥131॥
लागी प्रीति सुजान स्यों बरजै लोगु अजानु।
तास्यो टूटी क्यों बनै जाके जीय परानु॥132॥
बांसु बढ़ाई बूड़िया यों मत डूबहु कोइ।
चंदन कै निकटें बसे बांसु सुगंध न होइ॥133॥
कबीर बिकारहु चितवते झूठे करंते आस।
मनोरथ कोइ न पूरियो चाले ऊठि निरास॥134॥
बिरहु भुअंगम मन बसै मत्तु न मानै कोइ।
राम बियोगी ना जियै जियै त बौरा होइ॥135॥
बैदु कहै हौं ही भला दारू मेरे बस्सि।
इह तौ बस्तु गोपाल की जब भावै ले खस्सि॥136॥
वैष्णव की कुकरि भली साकत की बुरी माइ।
ओह सुनहिं हर नाम जस उह पाप बिसाहन जाइ॥137॥
वैष्णव हुआ त क्या भया माला मेली चारि।
बाहर कंचनवा रहा भीतरि भरी भंगारि॥138॥
कबीर संसा दूरि करु कागह हेरु बिहाउ।
बावन अक्खर सोधि कै हरि चरनों चित लाउ॥139॥
संगति करियै साध की अंति करै निर्बाहु।
साकत संगु न कीजिये जाते होइ बिनाहु॥140॥