प्रकृति के परिवर्तनों के अनुभवों का सहारा लेते हुए
मुझे समझ आ गया है
कि नुक़सानदेह है सुखाना
बेहूदा विचारों की दलदल को --
इसलिए कि बिगड़ जाता है प्राकृतिक सन्तुलन
उन वन्य प्राणियों की प्रजातियों विलुप्त होने के बाद
जो मौजूद रहती है
दिमाग़ की दरार के ऊपर
सूख सकती है
विशुद्ध विवेक की बहती नदियाँ
जहाँ से जीवन पाते हैं
विरल स्पष्ट विचार
उस पीढ़ी के कम्प्यूटर
जो बची रहना चाहती है जीवित