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परीक्षा / सियाराम शरण गुप्त

मैं हूँ एक, अनेक शत्रु हैं सम्मुख मेरे
क्रोध, लोभ, मोहादि सदा रहते हैं घेरे।
परमपिता, इस भाँति कहाँ मुझको ला पटका
जहाँ प्रतिक्षण बना पराभव का है खटका।

अथवा निर्बल समझ अनुग्रह है दिखलाया,
करने को बलवृद्धि अखाडे में पहुँचाया
सबल बनूँ मैं घात और प्रतिघात सहन कर,
ऊपर कुछ चढ सकूँ और दुख भार वहन कर।

इस कठिन परीक्षा कार्य में
हो जाऊँ उत्तीर्ण जब
कर देना मानस सद्म में
शांति सुगंधि विकीर्ण तब।