तब भी
इतने परेशान थे ।
अब भी इतने परेशान हैं ।
ख़र्चे बढ़े
नये दुख आए
बढ़ी आय छीने महँगाई ।
सन्तुलनों में
चले बेतरह
अज़ब घिनौनी हाथापाई ।
सिकुड़ीं सब सीमित इच्छाएँ
बर्राते दुर्बल गुमान हैं ।
बच्चों के
ग़ुरूर हैं अपने
अपने ही हैं ढब जीने के ।
सुने न कोई
बात हमारी
नाज़ हड़बड़े तख़मीने के ।
पंखों के जादू पर फूले
नव्य-दिव्य उनके रुझान हैं ।
धर्मप्राण
बीवी के रहते
कुछ ज़रूर था हलका जीवन ।
बोले-बतियाए का
सुख था
जंगल घर का लगा न निर्जन ।
धरे फिरे है कहाँ-कहाँ मन
सिर पर सारे इम्तिहान हैं ।
पाँव न उखड़ें
बीच धार में
ज़ोर न जाँगर, दूर पार है ।
ठानी है तो
बच निकलेंगे
नज़र लक्ष्य पर लगातार है ।
रहम -क़रम की बात नहीं है
मुश्क़िल के अपने निदान हैं ।