तुमने मेरे मस्तिष्क को बींदने की
बेपनाह कोशिश की है
उसे नियन्त्रित करने की
मशक्कत की है कि, जैसा तुम चाहो
मैं वैसा सोचूँ..
तुमने मुझे एक से बढ़ कर एक
रंगीन जाल दिखाया
बनाये अनोखे तिलिस्म और चाहा
कि जैसा तुम दिखाना चाहते हो
मैं बस वो ही देखूँ..
तुमने मेरी उंगलियों को
छेद छेद कर, पिरोने चाहे
रेश्मीं धागे, और चाहा
कि जो तुम चाहो
मैं बस वो ही लिखूँ..
मुझे मालूम है
तुम्हारा पूरा का पूरा निज़ाम
बस इस बल पर खडा है
कि जो तुम चाहते हो
मैं वही बोलूँ..
तुम मेरी वैधानिक हत्या के
तमाम अस्त्रों से लैस हो
मैं निहत्था हूँ
फ़िर भी बलवान
क्योंकि, तुम्हारा एक-एक औज़ार
तुम्हारी जेलें
यातनायें-धमकियां
और फ़ांसी के फ़ंदे
मुझे शिखंडी न बना सके.
मेरे एक छोटे से प्रश्न पर
न्याय और समता के प्रश्न पर
तुमने दिखा ही दिया
अपना वीभत्स रुप.
मेरे खून की एक एक बूंद
तेरा पर्दाफ़ाश करेगी.
मैं मजबूर हूँ
मैं वह नहीं सोच सकता जो तुम कहो
मैं वह नहीं देख सकता जो तुम दिखाओ
मैं वह नहीं लिख सकता जो तुम लिखवाओ
मैं वो नहीं कह सकता जिसे तुम चाहो.
रचनाकाल: दिसंबर २७,२०१०