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पर्वतक शिखरकेँ तोड़ि / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

हर युग युगसँ निर्माण-पथक अश्रान्त पथिक
हमरा अन्तरमे रहल अटल विश्वास सदा,
हम रोकि प्रभंजनकेँ दी अपना भुजबलसँ,
संकल्प हम दृढ़ देखि खसय मूर्च्छित विपदा।
हम मनुज सकल भारतवासी मानववादी
योजनाबद्ध जीवन यापन करबाक हेतु,
बाहर अन्तरकेँ राखि परिष्कृत, पौरुषसँ
दी बान्हि अगम जलनिधिपर पाथरकेर सेतु।
कतबो अगाध ई गाधिनन्दिनी रहथु, मुदा
दूनू तट कसि कय बान्हि नाथि कय रखने छी,
सम्मिलित शक्ति हमारे दुर्गाक स्वरूप धरय,
अंगारक माला हमहि गॉथि कय रखने छी
श्रमशीलताक की मोल मनुष्यक जीवनमे
अनुभवक तराजूपर रखने छी नापि जोखि,
हमरे श्रम-सीकरसँ भय साद्रँ धरा हरियर
रखने छथि वैभव-पूर्ण समुज्ज्वल अपन कोखि।
नहि भाग्यक राखि भरोस भाङ पी भकुआयल
छी रहनिहार आर्यावर्तक हम अभिमानी,
हम तोड़ि तलातल पाताल-स्थित गंगाकेँ
धरतीकेँ शीतल करक हेतु ऊपर आनी।
पर्वतक शिखरकेँ तोड़ि बना दी हम समतल
मरुभूमि कोड़ि श्यामलतासँ भरि दी अंचल,
हम भगीरथक अनुगामी उद्यमशील मनुज
हिमगिरिक शिखरसँ उतरि पड़थि गंगा चंचल।
स्वातन्त्र्य-समरमे विजय शंख छी फूकि चुकल
संलग्नताक परिचय जग पहिने पौने अछि,
हम आत्मबली संघर्षशील चेतन प्राणी
पशुबल हमरे लग उन्नत माथ झुकौने अछि।
हम लौहपिण्डकेँ तरल बनाबी फूक मारि,
दिःश्वास हमर तैजस धारा उगिलैत रहय
धमनीमे रक्तक धार बनल बिजुरी कड़कय
श्रम-घन जीवन-धारा बनि बनि पिघलैत रहय।
छातीक जोरसँ मन्थन कय उत्साह-सिन्धु
बाहर करैत छी सुधा भरल सोनाक धैल,
हम तपः पूत, राष्ट्रक कणकणसँ देब छोड़ा
युग-युगसँ बैसल कलुष, दीनताजन्य मैल।
मूल्यांकन कय रखने अनुभव-मंजूषामे
श्रमकेर महत्ता बुझा देब जगतीतलकेँ,
बरिसय जगमे शान्तिक अजस्र धारा अनुखन,
शीतल कय सकय सभक सन्तापित हीतलकेँ।