अम्बर था उगल रहा काजल
घननिबिड़तिमिर से संयोजित
था चन्द्रविहीन यामिनी का मुख
ताराओं से उत्कीर्णित।
शतधा द्रावण कर गिरिशृंगों को
चला जा रहा था निर्झर
धारा प्रवाह में नीचे-ऊपर
उठा भयंकर लहर-भँवर।
पूछा द्रुमसंकुल उपत्यका ने
चित्रलिखित-सी उत्कंठित
रुचिरागवर्ण नग गह्वर में,
कौतूहल से, होकर विस्मित।
‘‘प्रक्षालित चन्द्ररश्मियों से
करने वाले विदीर्ण भूधर,
कलमन्द्रमुखर फेनिल निर्झर
विश्राम करो रुक कर पलभर।’’
प्रश्नात्मक इस जिज्ञासा का
निर्झर ने दिया अडिग उत्तर
गुरुमेघमन्द्र उसके स्वर से
हो उठा निनादित नीलाम्बर।
‘जिस महासिन्धु से मिलना है
उसका पथ अन्तरहित अविदित
कुछ कम होगी उसकी दूरी
चलते रहने से ही निश्चित।’
बढ़ चला वेग से इतना कह
मुक्ताकिरीटमण्डित निर्झर
विस्तीर्ण बनाता अपना पथ
चलता चट्टानों के ऊपर।