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पर्वत काँपते हैं / कुमार रवींद्र

कट रहे हैं पेड़- पर्वत काँपते हैं
 
नदी में ठहराव
पथरीली हवाएँ
ढह रही पगडंडियों की
हैं कथाएँ
 
आँख गीली मौन सूरज ढाँपते हैं
 
सोचती है धूप -
जंगल क्यों खड़े चुप
किस तलहटी में उतर कर
फूल के जलसे गये छुप
 
ताल रेतीले इलाके नापते हैं
 
कौन जाने तेज कितने
ये कुल्हाड़े
गर्दनें सबकी झुकी हैं
दिन-दहाड़े
 
उन्हीं की खबरें रिसाले छापते हैं