पर्वत, नदियां हरियाली से बतियाता है, गांव।
अक्षत, रोली, फूल द्वार पर रखना अपने पांव।
हवा बहन गाती है कुछ-कुछ
सदा सगुन के गीत।
गंध-सुगंध बिखेर दिशाएं
झरती झर-झर प्रीत।
नरियल की कतरन भर लाती है बर्फानी नांव।
कुहरे की निंदिया जब टूटे
फुनगी तार उलीचे।
सूरज का श्रृंगार हृदय में
जैसे अमृत सींचे।
सिहर उठा तन हार गया जीवन मौसम के दांव।
मंद-मंद झरनों की वाणी
रूक-रूक कर कहती है।
कभी परखना करूणा
कितनी अंतस में रहती है।
बरगद के वंशज युग-युग से बाट रहे हैं छांव।
अक्षत, रोली, फूल द्वार पर रखना अपने पांव।