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पर-कटे पाखी / योगेन्द्र दत्त शर्मा

आंख का पानी हुआ नीला
कुए गहरे हुए!

जिन्दगी नीरस कहानी
रेत की
मेंड़ हो जैसे उजड़ते
खेत की
रंग नस-नस का हुआ पीला
थके चेहरे हुए!

भीड़ से संबंध
कटता जा रहा
परिचयों का वृत्त
घटता जा रहा
समय ने हर बोध को कीला
सभी बहरे हुए!

जूझते तन पर-कटे
पाखी बने
पांव टूटे, पर न
बैसाखी बने
सांस का बंधन हुआ ढीला
कड़े पहरे हुए!