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पर... / महेश चंद्र पुनेठा

पलुराए कोमल-कोमल पत्तों से
भरे गझिन छाया से
सुरभित सुमनों से सुशोभित
लकदक लदे मीठे-सरस फलों से
सहस्रबाहु की तरह भुजाएँ फैलाए
आसमान से सिर लड़ाए

सबको पता है
कहाँ से पाते हैं ये रूप-रस-गंध
जिन्होंने नहीं देखी कभी एक किरण उजाले की
एक कतरा हवा का
सहते रहे सीलनी-अंधेरा
लड़ते रहे कठिन बीवरों से
तलाशते रहे जल
खनिज दल
गहराइयों में पैठकर

ढूँढकर लाए ये सौंदर्य अपार
पर
प्रशंसा ज़मीन से ऊपर वाले ही पाते हैं ।