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पर कोई उम्मीद नहीं / चन्द्रगत भारती

इधर उधर बेचैन घूमता,
गीत विरह के गाता है !
ढाई आखर के उलझन में,
पागल मन घबराता है !

आस मिलन की उससे करता,
पर कोई उम्मीद नहीं !
 जिधर देखता हूँ छवि उसकी
दूर तलक है नींद नहीं !
पल पल उसकी यादों का बस,
झोंका आता जाता है !
ढाई आखर ---

भावों में विह्वल हो जाता,
धड़कन ये बढ़ जाती है !
हृदय चूमता उसकी छवि को
वो मुझको तड़पाती है !
उसमें ही दिल खोया रहकर
दिल को ही समझाता है !
ढाई आखर ---

बैठी दोनों भोली आँखे
रात रात भर रोती हैं !
घात लगा जिसमे पीड़ायें
अपना आँचल धोती है
जाने किस दुनिया से चलकर
आँसू राह बनाता है।।