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पलायन / केशव

मौत से डरकर
अमरता में विश्वास करते हैं
न हम प्यार करते हैं न घृणा
बस इंतज़ार करते हैं
कब होगी सुबह
और हर रोज़ की तरह
चल देंगे हम
अनिश्चयसे
अनिश्चय की ओर
आसमान की ओर हाथ उठाकर
उछाल देंगे सिक्कों-सी
कुछ प्रार्थनाएं

हम न कहते हैं
न सुनते
करते हैं बीच-बीच में
पक्षियों की बीट की तरह
अपने ऊपर से उड़ते
शब्दों का छिड़काव

हर रोज़ मरते हैं
पर एक बार मरने से डरते हैं
दर्द कोई बात तो नहीं
जिसे कह दिया जाये
रेलग़ाड़ी के डिब्बे में
फिर भी
चेहरा मदारी
लिये फिरते हथेलियों पर
जैसे कुछ भी नहीं है दुख़
बस एक घटना है
जिसे पढ़ते हैं अख़बारों
पोस्टरों में
जो कुछ भी सीखा है
मौत के ड्अर से
बीते हैं जितना भी
अमरता के भ्रम में बीते हैं

पर बाहर तो तैरते हैं हम
सूनी नाव की तरह
हाहाकार में