यदि कहीं तुम्हारे अलकजाल में छिप सकता मैं पल भर को,
हलकी कस्तूरी की सुगंध!--लेता उसाँस जो पल भर को,
देता बिसार सब दोष-रोष मैं अपने और परायों के,
मैं नयन मूँद अलकानगरी के स्वप्न देखता पलभर को!
मेरे मानस-पट खोल सहज, पग धर विभावरी स्वप्नसात,
आती उन अधगीली अलकों के मेघलोक से सद्यस्नात!
ओ मेरी मोह-महामाया! ओ श्यामल अलकों की छाया!
तुम चित्र-लिखित-सी ऐसी हो, हो जैसे तारोंभरी रात?
वह खुली सुकोमल अलक! और वह मेरे शिथिल पलक पागल!
प्रेयसि! पल में कर्पूर-सदृश ज्योतित होता सुरभित काजल!
क्या उस संज्ञाहत अंधकार में होगा अमृत प्रकाश नहीं?
तुम आओ, बैठो केश खोल, अलकें फैला, मैं हूँ निश्चल!