Last modified on 14 फ़रवरी 2010, at 09:30

पशेमानी / कैफ़ी आज़मी

मैं ये सोच कर उस के दर से उठा था
कि वो रोक लेगी मना लेगी मुझको
कदम ऐसे अंदाज से उठ रहे थे
कि वो आवाज़ देकर बुला लेगी मुझको
हवाओं मे लहराता आता था दामन
कि दामन पकड़ के बिठा लेगी मुझको

मगर उस ने रोका, ना मुझको मनाया
ना आवाज़ ही दी, ना वापस बुलाया
ना दामन ही पकड़ा, ना मुझको बिठाया
मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ता ही आया
यहाँ तक कि उस से जुदा हो गया मैं