Last modified on 23 नवम्बर 2017, at 16:59

पसीने से भीगी कविता / विवेक चतुर्वेदी

एक पसीने की कविता है
जो दरकते खेत में उगती है
वहीं बड़ी होती है
जिसमें बहुत कम हो गया है पानी
उस पहाड़ी नाले में नहाती है
अगर लहलहाती है धान
तब कजरी गाती है
इस कविता में रूमान बस उतना ही है
जितनी खेत के बीच
फूस के छप्पर की छाँव है
या खेत किनारे अपने आप बढ़ आए
गुलमोहर का नारंगी रंग है
इस कविता को रेलगाड़ी में चढ़ा
शहर लाने की मेरी कोशिशें नाकाम हैं
ये कविता खलिहान से मंडी
तक बैलगाड़ी में रतजगा करती है
ये समर्थन मूल्य के बेरूख हो जाने पर
कसमसाती है
खाद बीज के अभाव और
पानी के षड्यंत्रों पर चिल्लाती है
कभी जब ब्लाक का अफसर
बहुत बेईमान हो जाता है
तो साँप-सी फनफनाती है
ये सचमुच अपने समय के साथ खड़ी होती है
ये गाँव से कलारी हटाने के जुलूस में
शामिल होती है
ये कविता आँगन में बैठ
चरखे सा कातती है
रात रात अम्मा की
आँखों में जागती है
 जिज्जी के गौने पर
आँखें भिगोती है
बाबू के गमछे को धोती है
कभी ऊसर सी सूख जाती है
कभी सावन सी भीग जाती है
ये पसीने से भीगी काली देह पर
भूसे की चिनमिनाहट है
ये बूढ़े बाबा की लाठी की आहट है
कविता गांव के सूखते पोखरे
के किनारे बैठ रोती है
जहाँ भी पानी चिड़िया पेड़ पहाड़
और आदमी होता है वहाँ
होती है