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पस्त हो गई है / केदारनाथ अग्रवाल




पस्त हो गई हैं

हाथ की अंगुलियाँ

गाँठ की पर्त खोलते-खोलते

अंगूठे

अब भी खड़े हैं

संघर्ष में सिर कटाए

आदमी का सिर

और सीना

विध्वंस से बचाने के लिए


(रचनाकाल : 25.11.1968)