धीरे धीरे चलती है इंतज़ार की घड़ी
और समय भागता है खिड़की पर टंगे भाषा के कुम्लाहे परदों में
दीवारों पर रोशनी के छद्म रूपों में
छलांग लगाता इस डाल से उस डाल पर,
मन के अबूझमाड़ में हम खेलते लुका छुपी
जन्म चुना इसमें यह चेहरा मेरे लिए
नाम किसी और का दिया
उसे याद रखना मेरा काम
आजीवन लड़ाई
दुनिया घटती है चलती है दिन रात
भय के कोलाहल में घूमती,
इससे पहले कोई देख ले
चुपचाप मैं कानों को ढाँप दूँ
कि सुन लूँ उसकी गुनगुनाहट