पहला दिन मेरे आषाढ़ का।
सूखे का हुआ कभी
कभी हुआ बाढ़ का!
पहला दिन मेरे आषाढ़ का।
नीले आकाश धूल-धुएँ भरे,
दिरकी छाती, रोए घाव हरे;
टूटे या लगा रहे
कहकर भी नहीं कहे-
पीला पत्ता जैसे झाड़ का।
बूँदाबाँदी का क्षण उमस भरा,
सूनी माँगें, विधवा वसुंधरा;
एकाकी भरमाता,
छाया से कतराता-
मरुथल में गाछ एक ताड़ का;
पाटों का पता नहीं डूब गए,
घाटों का पता नहीं ऊब गए,
क्या होगा तन का,
इस मटमैले मन का-
क्या होगा विष दुखती दाढ़ का?
पहला दिन मेरे आषाढ़ का।