हर रोज सुनता हूँ
रात की स्याह टपकती बूँदें
चाँदनी के उजले फूलों पर गिरती
अँधेरे की फुहार
देखता हूँ दिन की रक्ताभ पंखड़ियों को
खुलते नीले आकाश में
ओह....दुख की गहराइयाँ
समुद्र से भी गहरी हैं
दर्द सहते-सहते
उसका आदी हो चला हूँ
जाने कितने सहते हैं बे-आवाज़
इस दर्द को
साँसो के रेशों में
फिर भी जीना चाहता हूँ
देखने को आदमी की महान उपलब्धियाँ
एक बेहतर दुनिया के स्फटित रबे
सुंदर भविष्य के अक्षत पुष्प
सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच
पत्तियों की भूरी नसों ने पिया है
किरणों से अमृत
कहाँ है वह मेरा धूँधला अतीत
जहाँ आँच को खोजते हाथ
बेचैन हैं
देखने दो मुझे, ओ वरूण
उसी पहली आँच को
उस पहले खनिक को
जो खुद को बदलता रहा है।
देखो से हंसिया
ये बरछी
क्या ये उस कच्ची धातु से
तनिक भी मिलते हैं
जिससे मैने इन्हें निचोड़ा है
कितनी ऊबड़-खाबड़ भद्दी मिट्टी से
रचे गये पारदर्शक खूबसूरत प्याले-प्यालियाँ
वो पहला शिल्पी
महायोद्धा भी था
जो निसर्ग की मार झेलकर
उसे देता था चुनौतिया
क्या मैं उसी का वंशज नहीं !
2007