पहली बार
जब दिन-दोपहर में शराब पी थी
तब हमजोलियों से ठिठोलियाँ करते
सोचा था :
कितने ख़तरनाक होते होंगे वे लोग
जो रात में अकेले बैठ कर पीते होंगे?
आज चाँदनी रात में
पहाड़ी काठघर में अकेला बैठा
ठिठुरी उँगलियों में ओस-नम प्याला घुमाते हुए
सोचता हूँ :
इस प्याले में चाँद की छाया है
चीड़ों की सिहरन
झर चुके फूलों की अनभूली महक
बीते बसन्तों की चिड़ियों की चहक है;
इस को-और इस के साथ अपनी (अब जैसी भी है)
किस्मत को सराहिए :
और कोई हमप्याला भला
अपने को क्यों चाहिए?
ग्वालियर, 18 अगस्त, 1968