भूरी मटमैली चादर ओढ़े
बूढ़े पुरखों से चार पहाड़
मिलजुल बैठे
ऊँघते-ऊँघते-ऊँघते ।
घाटी के ओंठों से कुहरा उठता
मन मारे, थके-हारे बेचारे
दिन-दिन भर
चिलम फूँकते-फूँकते-फूँकते ।
भूरी मटमैली चादर ओढ़े
बूढ़े पुरखों से चार पहाड़
मिलजुल बैठे
ऊँघते-ऊँघते-ऊँघते ।
घाटी के ओंठों से कुहरा उठता
मन मारे, थके-हारे बेचारे
दिन-दिन भर
चिलम फूँकते-फूँकते-फूँकते ।