...सब जानते हैं कि हवा ने परिन्दों को जन्म दिया लेकिन
उससे पहले उसने उनकी आँखों में आकाश रख
दिया था कि (वे) उड़ सकें । ऐसे ही अँधेरे ने अपने
अनुराग से चाँद को गढा और ये सिफ़त दी कि
वो दूसरों की आँखों में सपने रख सके ।
इसमें कोई छिपी हुई बात नहीं है कि आइनों को
देह की भूख होती है, लेकिन पहले ही हवा
ने (सब) हिला दिया था मेरे भीतर बन रही तु-
-म्हारी प्रतिच्छवि को : शाम थी तुम उदास थी शाम उदास
थी तुम ...लेकिन इससे भी पहले तुम्हारे होने ने ही मुझे गढ़ना
शुरू कर दिया था कि तुम गोया मूर्तिकार का चाकू थीं, लकीरें
काटतीं और शक्ल गढती मिट्टी में...
हम उस ओर नहीं जाएँगे जहाँ मिट्टी
और पृथ्वी की आन्तरिक इच्छा वृक्षों से होती हुई
उनकी पत्तियों में बज रही है : हवा से ।
-- ‘ हवा एक पुराना दर्पण है ’
(उसका पारा उतर चुका है वसन्तसेना !)
-- “ क्या हम एक घेरा काटकर आरम्भ पर आ पाए (अन्धकार !!) ”