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पहाड़ / ऋचा जैन

सबसे तेज़ थी वह, फूल-सी हल्की,
बातें करती हवा से
ऊपर, बिल्कुल ऊपर तक चढ़ जाती थी
पहाड़ के
सारे साथी पीछे छूट जाते
 
उसके एक जोड़ा पाँव
रोज कैसे उसे गुदगुदाते फट-फट चढ़ जाते
प्रेम हो गया था पहाड़ को उन एक जोड़ा पाओं से
समय-समय पर देता उसे उपहार
अपनी देह से कुछ छोटे-बड़े पहाड़

कुछ तो चपेटे बना खेले घंटों उसने उसकी ही चोटी पर बैठ कर
कुछ बड़े बन बैठे सिल, खल, बट्टा
कुछ और–चकलाव और चाकी
 
और धीरे-धीरे समा गए उसके अंतस में
अपना-अपना भारीपन लेके
और वो,
जो छाती में ऊग आए थे उसकी
वे सबसे भारी थे

अपने पहाड़ों से लैस, अब नहीं चढ़ती वह
वो उन्मुक्त पहाड़
और ना ही चाहती है अब और कोई उपहार