Last modified on 11 जून 2016, at 01:19

पहाड़ का दुःख / प्रशांत विप्लवी

दूर निकल आया था बहुत
ठीक जहाँ से समतल सड़क शुरू हुई थी
पहाड़ रहा खड़ा ठीक मेरे पीछे
जैसे कोई पिता बेटे के लिए देहरी पर खड़ा होता है
उसके ओझल होने तक

पहाड़ का दुःख
उसे फिर गहन रात की नीरवता में
इंतज़ार करना होगा और कई साल
जब वो थोडा और झुक जाएगा
जब वो कुछ और बंट जाएगा
पैरों के निशान ढूंढता हुआ बुढा पहाड़
अपने आस के कुछ पत्थर को लुढका देखता रहेगा नीचे घाटी की तरफ
जैसे शहर का दुह्स्वप्न
अचानक पहाड़ तक आया हो

पहाड़ का दुःख
उसे अकेले खड़ा रहना है
उस सूरज के उगने से डूब जाने तक
किसी की याद में मुस्कुराते हुए
जब इन्द्रधनुष को फैलाता है वो क्षितिज तक
सोचता है मैं लौट आऊंगा
कि पहाड़ याद कर रहा है मुझे
शहर ने जकड रखा है मुझे इस कदर
ऐसा लगता है पहाड़ को और करना होगा इंतज़ार

पहाड़ का दुःख
उसका एकाकी जीवन है
कि वो गा नहीं पाता कोई गीत
उन गड़ेरियों के साथ
और न ही उन झरनों के साथ

पहाड़ का दुःख
कि मैं आकर फिर लौट जाऊँगा
मुझे झरनों और गड़ेरियों के पास छोड़
उसे जुटाने हैं
मेरे लिए एक नयी हरियाली
और बुलानी है एक बारिश
अंत का सारा दुःख उसके आँख में पसर जाता है
मेरे पैर शहर की तरफ बढ़ते हुए
वो फिर अडिग खड़ा रहता है
पहाड़ का दुःख
पहाड़ जितना ही है शायद
मैं इनदिनों
एक पहाड़ में तब्दील हो रहा हूँ