वह सुरभित शीतल छाया!
फिर याद आ गई पर्वत पर के देवदारु की छाया!
भीनी थी गंध लाल चंदन की जैसी,
थीं बिछीं पत्तियाँ भी चन्दनचूरे सी,
हाँ, मेरी थकी देह जैसा ही मंद मरुत अलसाया!
वे खेत धान के, सोयी पर्वत-घाटी,
लेटी थी हरी-भरी ढिंग पर्वत-पाटी,
ज्यों जीवन की दोपहरी में सो रही कामना-काया!
उस हरी दुपहरी में लेटा था थक कर,
मैं पूछ रहा था मन से इसका उत्तर,
मधुकर! क्या मधु कुछ क़ाग़ज के फूलों में पाया?
तब याद आ रही थीं कितनी ही बातें,
आँसू से खारे दिन औ’ मीठी रातें,
वह भी, जो पहले कभी किसी को नहीं बताया!
मेरा यह क्षुद्र हृदय, वह विशद हिमालय!
सोचा अनन्त उस सुन्दरता में हो लय,
(जाने किसने?) यह अश्रु-हास का जीवन खूब बनाया!
मैं देवदारु के देवालय में सोया,
उस दिन वर्षों का दुख लघु क्षण में खोया,
ममता के कच्चे धागे में बँध, फिर जीवन अपनाया!
सानन्द गा रही थी पर्वत-पिक तरु पर
पर्वत पर से आते उत्तर प्रत्युत्तर,
भू-मुग्ध हुआ मैं, पर्वत ने जीवन-संगीत सुनाया!
देखी फिर कत्यूरी उपत्यका सुन्दर,
जीवन-मरु में आ लेटे सौ सौ निर्झर,
फिर बीते पर सीधा सादा मैदानी मन शरमाया!