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पहाड़ बन जाएं / ओम पुरोहित ‘कागद’

जब भी में सोचता हूं,
तब कई प्रश्‍न चिन्ह,
साक्षात मेरे चारों ओर
ताण्डवनृत्य करते है।
और फिर मस्तिष्क में
कई प्रश्‍न,
कभी नहीं लड़ते!
एक के बाद एक
मिल कर,
मेरे मस्तिष्क को
खोखला कर डालते है
और फिर खुद
चैन की नींद सोते है
मेरे सामने खड़े-खड़े ;
मुझे जगा कर।

मैं उठना चाहता हूं,
कि, बुत सा आता है- यथार्थ।
धीमे-धीमे चल कर
मेरे सीने पर आकर
एक टांग के बल खड़ा हो जाता है।
मैं उसे एक टक देखता हूं,
मुझ से नजर मिलते ही,
वह ऎसा पिघलता है कि,
बस, दिल में उतर जाता है
और दिल ;
उसकी चपेट में आ पथरा जाता है
और मैं पत्थर दिल हो जाता हूं।

पत्थर दिल माने; बुत !
यदि हमे अपने शोषण के बदले,
किसी के लिए कुछ कर के
बुत बनना है
या
इस बुत परस्त दुनियां में
मौत के बाद भी
बुत बन कर रहना है,
तो--
क्यों न हम,
वह पहाड़ बन जाएं,
जो पत्थर बनाते है ?
ओढ़ कर बर्फ की चादर,
तन कर खड़े हो जाएं
शांति की एक लम्बी लकीर बन जाए ;
अपने कद से बड़े हो जाएं ।