रोमपाद के राजभवन में
शांता-शृंगी परिणय,
स्वगोॅ के सबटा सुषमा के
अंगधरा पर संचय।
उबटन, मड़वा, घीढारी संग
बेटी ब्याह, बिलोकी
सुख-मोदोॅ के बोहोॅ उमड़ै
के छै; जे लेॅ रोकी।
रोमपाद नें खोली देलकै
राजकोष के द्वार,
मेघोॅ केॅ पावी केॅ पझलै
धरती रोॅ अंगार।
घुमड़ै छै चारो दिश बादल
छटका छटकै बरबस,
अमृत-धारोॅ सें भीगै छै
धरती केरोॅ नस-नस।
लू के आंधी के बदला में
डोलै छै पुरबैया,
मलहारोॅ पर डोलै मालिनी
कजरी पर छै नैया।
कथा सुनी केॅ दशरथ ऐलै
मन के व्यथा छुपैलेॅ,
शंको छै, की लौटी जैतै
बिना कुछू ही पैलेॅ।
कहलेॅ छै गुरु वशिष्ठजी नें-
जों शृंगी जी आवेॅ,
अवधराज के पुण्यभूमि में,
संभव हानि नसावेॅ।
शृंगीजी ही हेनोॅ ऋषि जे
पुत्रेष्ठि यज्ञ ज्ञाता,
हुनकोॅ बिना तेॅ के दुख मेटै
विधियो आकि विधाता।“
दशरथ बोलै रोमपाद सें
”जों शृंगी मुनि जैता,
अवध राज के पुण्यभूमि पर
आपनोॅ गोड़ जमैता।
हिनकोॅ बिन पुत्रेष्ठि यज्ञ की
केन्हौ केॅ संीाव छै?
पुत्र बिना तेॅ हमरोॅ जीवन
सूनोॅ-सूनोॅ भव छै।
जाय मनावोॅ मुनि-शांता केॅ
चलौ अवधपुर अभिये,
ऋषिकुमार जों मानैं हमरोॅ
लौटवै हम्मू तभिये।“
दशरथ केरॉे बात सुनी केॅ
रोमपाद-मन घुललैे
ऋषिकुमार दामाद शृंगी लुग
किंछा लेलेॅ चललै।
आवी केॅ दामाद ठियां सब
बात कहलकै मन के,
की दशरथ चाहै हुनका सें
दुख के दाह-शमन के।
सबटा बात सुनी केॅ शृंगी
मन में सोची लेलकै,
जान्है छै दुखमोचन लेली
जाय केॅ हामी देलकै।
रोमपाद कुसुमे रं फूलै
बाहर सें, भीतर सें,
भींगी रहलोॅ रोम-रोम छै
सुख के श्रमसीकर से।
जाय केॅ दशरथ केॅ लै ऐलै
परिचय भेलै जी भर,
रोमांचित छै; जनम-जनम के
पत्थर, ऊसर, टीकर।
पुलकित होने रोमपाद छै
जेहनोॅ कि दशरथ छै,
ऋषिकुमार के आगू दोनों
श्रद्धा भाव सें नत छै।
रोमपाद के गला लगी केॅ
दशरथ अवध पहुँचलै,
बात सुनी केॅ राजभवन में
मौज खुशी के मचलै।
अंगदेश सें अवध राज तक
फूल बिछैलोॅ गेलै,
मंगल केरोॅ गीत सुरोॅ सें
बहु विधि गेलोॅ गेलै।
कोय्यो भी कुछुओ नै जानै
की लेॅ छेकै उत्सव,
तहियो मोदोॅ में छै डुबलोॅ
नर-नारी के जनरव।
पंडित-ज्ञानी प्रज्ञा सें ही
सब कुछ जानी रहलोॅ,
यही वास्तें आनन्दोॅ में
जाय छै गुनीजन बहलोॅ।
रोमपाद के खुशी-मोद के
की छै कहीं ठिकानोॅ,
टूटी रहलोॅ आह्लादोॅ के
सब्भे आय सीमानोॅ।