मैंने मोहल्लों को देखा वे बेतरतीब घरों से अटे पड़े थे
शहर अटे पड़े थे अव्यवस्थित मुहल्लों से
जबकि क़ब्रगाह में मुर्दा शरीरों पर लगे
पत्थरों की तरतीबी पसरी हुई थी
मैंने देखा: जिंदापन कभी ढाँचे में नहीं बँधता है
जिंदापन नहीं मानता कभी पाँत का कोई भी नियम.
तभी शायद कला के इतिहास में कविता का शिल्प
हमेशा बेतरतीब रहा है
नहीं बन पाई कविता की कोई ऐसी शैली
जिसे अंतिम कहा जा सके।