दीठ तक फैला
जल का विस्तार
शान्त, गहरा, निर्मल
आते-जाते ताक-झाँक कर जाते
मेघ धवल-श्यामल
जल में नीचे झलक रही घास
हरी, कोमल
यह सब
कितना सुन्दर-कितना उदास !
कितना भव्य-कितना पराया !
पर इधर
किनारों की मिट्टी पर मँडी हुई
दो पाँवों की छाप
यह सब
अब कितना प्रिय, कितना खिला,
कितना दिव्य, कितना आप !
(1972)