कुशा की पत्तियों की धार-सी
कोई चीज़ आई और छू कर चली गई
अस्त होते नक्षत्रों के डूबने की आवाज़ थी
कि तुम्हारी स्मिति का उत्कंठित मौन
कि चन्द्रकान्तमणि के द्रव से भरे जलतरंग
अधरों पर कम्पित बूँदें
पाटल दल पर काँप रहे थे समुद्र...
जब तुमने देर तक कुछ नहीं कहा
तो फिर मैं भी क्या पूछता ?