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पातालपानी की उपत्यका से / महेन्द्र भटनागर

तुम्हारे अंक में
विश्रांति पाने आ गया
भटका प्रवासी
मैं !

अनावृत वक्ष-ढालों पर
सहज उतरूँ सबल चट्टान रूपी बाँह दो,
शीतल अतल-की छाँह दो !
तप्त अधरों को
सरस जलधार का सुख-स्पर्श दो,
युग मूक मन को हर्ष दो,
अतृप्त आत्मा को
सुखद अनुराग-संगम बोध दो !
एकांत में
कल-कल मधुर संगीत से
दो स्वप्न का अधिवास बहुरंगी !
ओ गहन घाटी !
आ गया हूँ मैं
तुम्हारा प्राण
चिर-संगी !

कुछ क्षणों को बाँध लूँ
अल्हड़ तुम्हारी धार से
बेबस उमड़ती भावना का ज्वार !
फिर इस जन्म में
इस ओर
आना हो, न हो !

क्या मुझ प्रवासी का
नहीं इतना तनिक अधिकार
छोड़ जाऊँ जो
प्यार सूचक
चिन्ह ही
दो .. चार .... ?