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पाथरसँ प्रेम / दिलीप कुमार झा

पानि पाथरक गहे-गह पैसि
निर्विकार भावें ओकर अंग-प्रत्यंगकें स्पर्श करैयै
एहि रंगहीन स्पर्शसँ पाथरोक मोनमे होइछ गुदगुदी
पड़ल रहैयै अल्हरजकाँ
पानि स्पर्शे धरि नहि
ओकरा आलिंगनमे ल'
ओंघराइत चलि अबैत अछि नीचां
बहुत नीचां
जतय जोतल खेत छैक
खेतमे हरियर कंचन धानक संग गाछक छाहरि
चिड़ै आ फूल छैक
नेना लोकनिक तोतरि बैल छैक
ज्ञानी लोकक रोपल कबकब ओल छैक
ई सबटा दृश्य सद्य: देखाइत अछि
हुंडरूक जलप्रपातमे
मनोरम विलक्षण दृश्य
मनोहारी परिदृश्य
हमरो लग अछि एकटा पैघ पाथर
जकरापर हमर प्रेमक कोनो असरि नहि
लगैए हमहीं पानि नहि बनि सकलहुँ।