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पानी का दावा / रमेश रंजक

ऊपर सड़क सुरंगें नीचे
अनपढ़ बैठे आँखें मींचे

धरती पर पानी का दावा
सुनता रहा भूमिगत लावा
लावे की कानाफूसी को
सिर्फ़ जानते बाग़-बग़ीचे

जड़ें नहीं हैं जिनकी गहरी
उनकी दुनिया गूँगी-बहरी
यह अँधी ज़िन्दगी, बिछाने में
बीतेगी दरी-गलीचे

अनपढ़ बैठे आँखें मींचे