जुटने लगी थी अलसुबह
फिर औरतों की भीड़
सामने की बस्ती में
म्यूनिसिपालिटी के नल के इर्द - गिर्द
हो गई थी शुरू
उनके बीच, बेतहाशा भाग - दौड़,
धमा - चौकड़ी, धक्का - मुक्की
रखने को अगली कतार में
अपने ख़ाली बर्तनों का ढेर ।
बस, थोड़ी ही देर में मच जाएगा वहाँ घमासान
आते ही नल
गूँज उठेंगे वातावरण में
शोर और अपशब्दों के स्वर
हो जाएगी शुरू, फिर वही जंग
और चलती रहेगी बन्द होने तक नल के
नित्य की तरह ।
लुप्त हो जाएगी एक - एककर
फिर ये औरतें अपने - अपने घरों में
छोड़कर उस कीच में टूटी हुई चूड़ियों के टुकड़े,
पैरों के बेतरतीब निशान और खींचकर माहौल में
एक ख़ौफ़नाक सन्नाटा सारी दोपहर के लिए ।
दिखतीं हैं शाम को फिर यही औरतें
बतियाती हुई आपस में
भद्दे मज़ाको पर हँसती हुई
फूहड़ हँसी ।
खिड़की से टिकी हुई घण्टों
तलाशती रहती हूँ मैं
आधुनिक पनघट की इन पनहारियों में
वह माधुर्य, वह मोहकता, वह चुहल, वह कोमलता
जिसका वर्णन करते हुए पड़ जाता था
कवियों को भी, शब्दों का टोटा
पर थकती नहीं थी कभी उनकी क़लम ।
जाने कहाँ खो गए गूँजते हुए इनमें
वो मेघ - मल्हार और कजरी के स्वर ?
प्रवाहित नहीं होती इनके अन्दर से अब
सौन्दर्य की वो अल्हड़ नदी
सूख चुके हैं सारे रस स्रोत
दरक गई है उमंगों की गागर
बून्द - बून्द को मोहताज
रेगिस्तान ज़िन्दगी में
उगी हुई
संघर्षो की नागफनियों से
तार- तार हो चुकी इच्छाओं की चूनर
सहेज नहीं पाती है इनका स्त्रीत्व ।
त्याग कर सारा शील - संकोच
लड़ती हैं ये औरतें
पानी के लिये यहाँ नित्य नई जंग ।
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