छातियों-सा उमड़ता
गहरे से आता है समन्दर
गूँजती आतीं पुकारे हवाओं में
किन्तु सरू के पेड़
मुँह फेरे खड़े हैं
सिर हिलाते।
हम भी किनारों पर खड़े
पाँयचे ऊँचे किये
देखते है
उमगती दूर से छालें
बैठती आतीं किनारों पर
फैलती हैं घेरती हम को
एक पल पाँवों तले सरकती है रेत
मन कँप-सा आता है।
तब तलक पानी लौट जाता है
तब तलक पानी लौट जाता है .......
(1975)