हां S S
वे दिन भी
क्या दिन थे सुख भरे
सूखकर झर चुके जो
पीले पत्तों की तरह
फिर भी अक्षय है
सौंधी-सौंधी स्मृतियों का सिलासिला
पास बैठने पर तुम्हारे
अंगीठी की तरह
दहकने लगती थी देह
नथूनों से निकलती गर्म सांसें
तपते होंठों की मुहर लगाता था जब
गर्दन और कंधों के बीच कहीं
कांसी की बजती थाली-सी
झनझना उठती थी समूची संगमरमरी देह तुम्हरी
और दोनों तरफ
नस-नस में तनतनाने लगता था पानी
लेकिन आज
सांसें वही
होंठ वही
गर्दन-कंधा वही
वही मैं और तुम
लेकिन स्पन्दन नहीं
स्फुरण नहीं
सुबह-शाम की जरूरतों के सोख्तों ने
सोख लिया सारा पानी
पानी ही न रहा जब
क्या करे कोई इस जीवन-मोती का ?