भरे पेट को खाना खाले
कुर्सी वाले को बैठता-
बैठ जरा ! कुछ बोल बता ले
नहीं जला जिस घर में चूल्हा
उसको कहता भग जा साले।
धनवानों को नमन बन्दगी
वही सोच है ! वही गन्दगी
जली भुनी निर्धन सुनता है-
सेवा देते कटे जिन्दगी
एक जतन कर पूरे मन से
खोल बन्द भीतर के ताले।
रहे बहुत सोहबत के छोटे
गोल नहीं जो पहिए होते
रुकते नहीं चलन में रहते-
मार्केट के सिक्के खोटे
बहुत ज़रूरी इन्हें रोकना
जबरन में जो गये उछाले।
कई अनर्गल काम किये हैं
उसकी दौलत जोड़ लिये हैं
चाहे जिसे खरीदें-बेचें-
कैसा डर हम होंठ सिये हैं
पूछ-परख में रख पाबन्दी
गोबर नहीं गणेश बना ले।
-रामकिशोर दाहिया