एक
मैं निछावर हूँ तुम पर, नेरूदा !
उस पर भी यह महज
चार दाने चावल के हैं
तुम्हारी प्रतिभा की उत्तुंग
शुभ्र पर्वत वेदी पर !
मैं अपनी छोटी सी नौका छोड़ देता हूँ
तुम्हारे सात समुन्दरों के ऊपर !
वह भटकेगी
कुछ अर्से शायद !
मगर वह
खोएगी नहीं
कभी !
इतना तो पूरा विश्वास है !
दो
तुम्हारे साथ
विश्व व्याप्ति में समा जाने की
एक धड़कन यह
मेरी एकान्त मानव धड़कन यह
कैसी है ?
प्रेम और मनुष्य और पर्वत
और सागर का
यह पार्थिव यथार्थ
टकराव तुमुल
संघर्ष
एक निरन्तर आन्तरिक
सम्मिलन की उपलब्धि
की ओर ।
सहव्याप्ति का यह क्षण
मेरे अन्दर जो यह
अपनाव तनाव का
एक ही यथार्थ
वही तो हो
तुम हमारे नेरूदा !