Last modified on 3 सितम्बर 2011, at 23:43

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - १०

मर्मवेधा
(19)
 
त्याग कैसे उससे होगा।
न जिसने रुचि-रस्सी तोड़ी।
खोजकर जोड़ी मनमानी।
गाँठ सुख से जिसने जोड़ी॥1॥

एकता-मंदिर में वह क्यों।
जलायेगी दीपक घी का।
कलंकित हुआ भाल जिसका।
लगा करके कलंक-टीका॥2॥

मोह-मदिरा पीकर जिसने।
लोक की मर्यादा टाली।
संगठन नाम न वह लेवे।
गठन की जो है मतवाली॥3॥

नहीं वसुधा का हित करती।
लालसा-लालित भावुकता।
लोक-हित ललक नहीं बनती।
किसी की इन्द्रिय-लोलुपता॥4॥

गले लग विजातीय जन के।
जाति-ममता है जो खोती।
कमर कस वह समाज-हित की।
राह में काँटे है बोती॥5॥

नाम ले विश्वबंधुता का।
विलासों को जिसने चाहा।
आप जल किसी अनल में वह।
सगों को करती है स्वाहा॥6॥

गीत समता के गा-गाकर।
विषमता जो है दिखलाती।
बहक यौवन-प्रमाद से वह।
जाति-कंटक है बन जाती॥7॥

बहाना कर सुधार का जो।
बीज मौजों के है बोती।
क्यों नहीं उसने यह समझा।
सुधा है सीधु नहीं होती॥8॥

किसी का हँसता मुखड़ा क्यों।
किस जी पर जादू डाले।
किसी का जीवन क्यों बिगड़े।
पड़े पापी मन के पाले॥9॥

लाज रख सकीं न यदि ऑंखें।
किसलिए उठ पाईं पलकें।
गँवा दें क्यों मुँह की लाली।
किसी कुल-ललना की ललकें॥10॥

मधुप
(20)
 
कर सका कामुक को न अकाम।
कमलिनी का कमनीय विकास।
कर सका नहीं वासना-हीन।
वासनामय को सुमन-सुवास॥1॥

विहँसता आता है ऋतुराज।
साथ में लिये प्रसून अनन्त।
हुआ अवनीतल में किस काल।
चटुल उपचित चाहों का अन्त॥2॥

फूल फल दल के प्यारेले मंजु।
दिखाते हैं रसमय सब ओर।
हुई कब तजकर लाभ अलोभ।
तृप्ति की ललक-भरी दृग-कोर॥3॥

कामनाओं की बढ़े विभूति।
चपलतर होता है चित-चाव।
प्रलोभन अवलम्बन अनुकूल।
ललाता है लालायित भाव॥4॥

मत्तता आकुलता का रूप।
लालसाओं का अललित ओक।
उदित होता है मानस मध्य।
मधुप की लोलुपता अवलोक॥5॥

समता-ममता
(21)

कालिमा मानस की छूटी।
हुआ परदा का मुँह काला।
टल गया घूँघट का बादल।
विधु-वदन ने जादू डाला॥1॥

पड़ा सब पचड़ों पर पाला।
बेबसी पर बिजली टूटी।
बेड़ियाँ कटीं बंधानों की।
गाँस की बँधी गाँठ छूटी॥2॥

बजी वीणा स्वतंत्रता की।
गुँधी हित-सुमनों की माला।
सुखों की बही सरस धारा।
छलकता है रस का प्यारेला॥3॥

रंगतें नई रंग लाईं।
हो गया सारा मन भाया।
धूप ने जैसा ही भूना।
मिल गयी वैसी ही छाया॥4॥

प्यारे से गले लगा करके।
चूमती है उसको क्षमता।
स्वर्ग-जैसा कर सुमनों को।
विहँसती है समता-ममता॥5॥