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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ७

जब मेरा हृदय पसीजे।
ऑंखों में ऑंसू आता।
तब कौन पिपासित जन की।
मुझको है याद दिलाता॥3॥

जब मे अन्तस्तल में।
बहती है हित की धारा।
तब कौन बना देता है।
मुझको वसुधा का प्यारा॥4॥

पर-दुख-कातरता मेरी।
जब है बहु द्रवित दिखाती।
तब क्यों विभूतियाँ सारी।
सुरपुर की हैं पा जाती॥5॥

ताँबा सोना बन जाये।
जब जी में है यह आता।
तब कौन परसकर कर से।
है पारस मुझे बनाता॥6॥

जब सहज सदाशयता की।
वीणा उर में है बजती।
तब क्यों सुरपुर-बालाएँ।
हैं दिव्य आरती सजती॥7॥

जब मानवता की लहरें।
मानस में हैं उठ पाती।
तब दिव्य ज्योतियाँ कैसे।
जगती में हैं जग जाती॥8॥

पतिप्राण
(14)
चौपदे

क्या समझ नहीं सकती हूँ।
प्रियतम! मैं मर्म तुम्हारा।
पर व्यथित हृदय में बहती।
क्यों रुके प्रेम की धारा॥1॥

अवलोक दिव्य मुख-मण्डल।
थे ज्योति युगल दृग पाते।
अब वे अमंजु रजनी के।
वारिज बनते हैं जाते॥2॥

जब मंद-मंद तुम हँसते।
या मधुमय बन मुसकाते।
तब मम ललकित नयनों में।
थे सरस सुधा बरसाते॥3॥

जब कलित कंठ के द्वारा।
गंभीर गीत सुन पाती।
तब अनुपम रस की बूँदें।
कानों में थीं पड़ जाती॥4॥

जब वचन मनोहर प्यारे।
कमनीय अधर पर आते।
तब मे मोहित मन को।
थे परम विमुग्ध बनाते॥5॥

जब अमल कमल दल ऑंखें।
थीं पुलकित विपुल दिखाती।
तब इस वसुधा-तल को ही।
थीं सुरपुर सदृश बनाती॥6॥

क्यों है अमनोरम बनता।
अब सुख-नन्दन-वन मेरा।
कैसे विनोद-सितकर को।
दुख-दल-बादल ने घेरा॥7॥

उर में करुणा-घन उमड़े।
तुम बरस दयारस-धारा।
कितने संतप्त जनों के।
बनते थे परम सहारा॥8॥

कुछ भाव तुम्हा मन के।
जब कोमलतम बन पाते।
तब बहु कंटकित पथों में।
थे कुसुम-समूह बिछाते॥9॥

ऑंखों में आया पानी।
था कितनी प्यासे बुझाता।
उसकी बूँदों से जीवन।
था परम पिपासित पाता॥10॥

उस काल नहीं किस जन के।
मन के मल को था धोता।
जिस काल तुम्हारा मानस।
पावन तरंगमय होता॥11॥

वह अहित क्यों बने जिसने।
सीखा है परहित करना।
क्यों द्रवित नहीं हो पाता।
अनुराग-सलिल का झरना॥12॥

उपकार नहीं क्यों करता।
अवनीतल का उपकारी।
बन रवि-वियोगिनी कबतक।
कलपे नलिनी बेचारी॥13॥

मैं जीती हूँ प्रति दिन कर।
सा प्रिय कर्म तुम्हा।
तुम भूल गये क्यों मुझको।
मे नयनों के ता॥14॥

है यही कामना मेरी।
सेवा हो सफल तुम्हारी।
ललकित ऑंखें अवलोकें।
वह मूर्ति लोक-हितकारी॥15॥