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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ९

गुण है गौरव गरिमा-रत।
हित-निरत नीति का नागर।
मानवता उर अभिनन्दन।
सुख-निलय सुधा का सागर॥12॥

वह है भव-भाल कलाधर।
जो है कल कान्ति विधाता।
यह है शिव-शिर-सरि का जल।
जो है जग-जीवन-दाता॥13॥

पुलकित विलसित आलोकित।
है लोक-रूप से लालित।
गौरवित प्रभावित उपकृत।
भव है गुण से परिपालित॥14॥

ले रूप मुग्धता सम्बल।
करता है जन-अनुरंजन।
गुण है विवेक से बनता।
अज्ञान - अंधा - दृग - अंजन॥15॥

कान्त कल्पना
(17)

रंग गोरा हो या काला।
मुख बने, मन से मन भाये।
असुन्दर बनता है सुन्दर।
हृदय की सुन्दरता पाये॥1॥

असित अकलित लोहे जैसे।
वदन थे बने प्रकृति-कर से।
दमकते वे कुन्दन-से मिले।
मंजु-उर पारस के परसे॥2॥

जब रुचिरता अपनी रीझे।
रुचिर रुचि है उसमें भरती।
तब अमंजुलता आनन की।
लाभ मंजुलता है करती॥3॥

जब सदाशयता-सी उज्ज्वल।
विधु-विभा बनती है सजनी।
नयन-रंजन तब करती है।
कलित हो कुरूपता-रजनी॥4॥

जब अशोभनता तप-ऋतु पा।
रस-रहित बनता है आनन।
तब सरस उसको करता है।
बरस रस सदाचार-सा घन॥5॥

सजाता है उस मुख तरु को।
छिनी जिसकी छवि-हरियाली।
मंजुतम मानस-कुसुमाकर।
ले अमायिकता कुसुमाली॥6॥

उस कुमुख को कल करता है।
नहीं जिस पर सुषमा होती।
निकल करुणामय मानस से।
ऑंसुओं का मंजुल मोती॥7॥

कालिमा मुख की हरती है।
लालिमा लोहित चावों की।
कान्त कुवदन को करती है।
कान्ति कोमलतम भावों की॥8॥

निरीक्षण
(18)

दिव्यता पा जाती है कान्ति।
मिले विधुवदनी का मृदु हास।
बनाता है तन को कनकाभ।
कामिनी का कमनीय विलास॥1॥

गात-छवि-सरि का सरस प्रवाह।
रूप-सर का कर-विलसित आप।
मुख-कमल का है कान्तविकास।
कामिनीकुल का केलि-कलाप॥2॥

कामिनी-भौंहों को कर बंक।
तानता है कमनीय कमान।
बनाकर लोचन को बहु लोल।
मारता है कुसुमायुधा बान॥3॥

सुछवि-सरसी का है कलकंज।
किसी मोहक मुखड़े का भाव।
रूप-तरु का है सरस-वसंत।
अंगना का बहु रसमय हाव॥4॥

रसिकता में भर-भर-कर रीझ।
डालता है किस पर न प्रभाव।
मुग्धता को करता है मत्त।
भामिनी-मुखभंगी का भाव॥5॥

कला से हो जाता है मंजु।
लोक - रंजनता - रजनी - अंक।
बनाता है मुख-नभ को कान्त।
कामिनी-विभ्रम मंजु मयंक॥6॥

भाव में भर सुरलोक-विभूति।
बढ़ा मुख-मंजुलता का मोल।
दृगों में भरता है पीयूष।
किसी ललना का कान्त कलोल॥7॥

लोचनों में भर-भरकर लोच।
मुग्ध मन को मोती से तोल।
बहाती है रस सरस प्रवाह।
मृगदृगी लीलाओं से लोल॥8॥